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पारुल कपूर का उपन्यास 'इनसाइड द मिरर' विभाजन के बाद के पारिवारिक द्वंद्व की कहानी है

लेखिका पारुल कपूर का जन्म भारत के असम राज्य में हुआ है और वह अमेरिका के Connecticut में पली-बढ़ी। इसके बाद वह 1984 में भारत लौट गईं और बॉम्बे पत्रिका के लिए लिखते हुए मुंबई में रहीं। फिर वह वह अमेरिका लौट आईं और कोलंबिया विश्वविद्यालय से MFA किया। उनके नाम और काम को कई साहित्यिक पत्रिकाओं में जगह मिली है।

लेखिका पारुल कपूर का पहला उपन्यास 'इनसाइड द मिरर' 1950 के दशक की मुंबई की कहानी है। / NIA

लेखिका पारुल कपूर का पहला उपन्यास 'इनसाइड द मिरर' 1950 के दशक की मुंबई की कहानी है। यह वह दौर था जब उपनिवेशवाद के चंगुल से निकला भारत खुद को नए सिरे से गढ़ने का प्रयास में जुटा है। यह कहानी है दो जुड़वा बहनों और उनके परिवार के द्वंद्व की है जो महिलाओं के लिए पारंपरिक भूमिकाओं से परे अपनी स्वतंत्रता पर जोर देने का प्रयास करती हैं और उनका विरोध होता है।

जया मेडिकल स्कूल अटेंड करती हैं, लेकिन वह एक चित्रकार बनना चाहती हैं। उनकी बहन कमलेश फिल्मों में भरतनाट्यम डांस करने का ख्वाब देखती हैं। वहीं, जया के माता-पिता शादी के लिए एक अच्छे लड़के की तलाश में जुटे हैं। जया और कमलेश की दादी बेबेजी एक पूर्व स्वतंत्रता सेनानी है। आजादी की लड़ाई के बाद अब वह पर्यावरण के लिए एक नई लड़ाई लड़ती हैं, लेकिन अपनी पोतियों के साथ रूढ़िवादी हैं। युवा भारतीय लड़कियों के लिए समाज के सख्त दायरे से बाहर जाने के उनके प्रयासों की निंदा करती हैं।

न्यू इंडिया अब्रॉड के साथ एक इंटरव्यू में लेखिका पारुल कपूर ने भारत विभाजन के बाद भारतीय महिलाओं के जीवन के अंर्तद्वंद्व के बारे में बात की, यह देखते हुए कि उनमें से कई ने स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लिया था, लेकिन फिर भी अपने परिवारों के लिए वे रूढ़िवादी विचार रखते थे।

पारुल ने कहा कि जया और कमलेश उस वक्त सबसे अधिक जीवंत महसूस करती हैं, जब वे अपनी कला का अभ्यास कर रही होती हैं। उनका अपने माता-पिता या समाज के खिलाफ विद्रोह करना इतना नहीं है, जितना कि यह उनके आंतरिक सपनों का पूरा करना है। इसलिए अगर इसका मतलब है कि वे सभी प्रकार के सामाजिक मानदंडों को तोड़ रही हैं, तो उनकी दादी इसके लिए तैयार नहीं हैं। स्वतंत्रता सेनानी होने का मतलब यह नहीं था कि उन्होंने अपने परिवार के प्रति दायित्वों की अवहेलना की, भले ही वह आंदोलन के लिए जेल गई हों।

उन्होंने कहा कि कमलेश के लिए एक अभिनेत्री या जया के लिए एक चित्रकार बनना और शादी नहीं करना और पुरुषों के वर्चस्व वाले इस समूह में शामिल होने से इनकार करना, ये एक ऐसी स्थिति थी जब ये माना जाता था कि आप अपने परिवार को शर्मिंदा करते हैं। 1950 के दशक के भारत में केवल कुछ मुट्ठी भर महिला कलाकार थीं।

लेखिका ने कहा कि बेबेजी इसका समर्थन नहीं करेंगी, क्योंकि तब उनका एक स्थिर पारिवारिक जीवन नहीं होगा, जो भारतीय समाज का आधार है। लेकिन इस तरह से वे अपने परिवार को शर्मसार कर रही हैं, अपने परिवार के लिए विनाशकारी हो रही हैं।

विभाजन के बाद के युग में उपन्यास लेखन ने पारुल कपूर को उपनिवेशवाद के प्रभाव की अधिक बारीकी से जांच करने की इजाजत दी। पारुल ने कहा कि अपने उपन्यास में मैं विभाजन पर ज्यादा फोकस नहीं करना चाहती थी। वह उथल-पुथल, हिंसा और नरसंहार का दौर था। ऐसे में सामान्य जीवन वास्तव में नहीं चल सकता था। उन्होंने कहा, उनके दादा ने उसे विभाजन की भयावहता के बारे में कई कहानियां सुनाई थीं।

कपूर ने कहा कि मैं विभाजन के बाद के उस दौर के बारे में लिखना चाहती थीं, जहां विभाजन का प्रभाव अभी भी लोगों के जीवन में बहुत महसूस किया जाता था। उनकी आत्म-रचना विभाजन की इस त्रासदी से उत्पन्न होती है, जिसे उन्होंने सीधे अनुभव नहीं किया है, लेकिन उनके परिवार के सदस्यों ने किया है।

पारुल ने उपन्यास पर शोध और लेखन में 15 साल से अधिक समय बिताया। पारुल ने कहा कि उनका उपन्यास इस उथल-पुथल को देखने के उस घाव से बढ़ती है, अपने रिश्तेदारों की उदासी को देखकर, जिन्होंने अपने घरों को खो दिया है, परिवार के सदस्यों को खो दिया है। मुझे लगता है कि मुझे वास्तव में उस इतिहास को समझने में लंबा समय लगा, जहां से ये लड़कियां आ रही हैं।

2022 में अपनी रिलीज से दो साल पहले, 'इनसाइड द मिरर' को उपन्यास के लिए एसोसिएशन ऑफ राइटर्स एंड राइटिंग प्रोग्राम्स (AWP) पुरस्कार मिला। जस्टिस ब्रैंडन हॉब्सन ने लिखा 'लालित्य और सटीकता के साथ तैयार किया गया और पारिवारिक ड्रामा की खोज में दिल दहला देने वाला यह उपन्यास कल्पना का एक सुंदर मिश्रण है।' इस उपन्यास को इस साल नारीवादी विषयों को संबोधित करने के लिए Ms magazine द्वारा अवश्य पढ़े जाने वाले के रूप में भी चुना गया था।

लेखिका पारुल कपूर का जन्म भारत के असम राज्य में हुआ है और वह अमेरिका के Connecticut में पली-बढ़ी। इसके बाद वह 1984 में भारत लौट गईं और बॉम्बे पत्रिका के लिए लिखते हुए मुंबई में रहीं। फिर वह वह अमेरिका लौट आईं और कोलंबिया विश्वविद्यालय से MFA किया। उनके नाम और काम को कई साहित्यिक पत्रिकाओं में जगह मिली है, जिनमें द न्यू यॉर्कर और गुएर्निका शामिल हैं। फिलहाल अब अटलांटा, जॉर्जिया में रहती हैं।

 

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