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द ग्रेट एस्केप : अमेरिका में गुलामों की तरह रहे 500 मजदूरों की सच्ची कहानी

कहानी की शुरुआत आधी रात को आए एक रहस्यमय फोन कॉल से हुई। कॉल तब आई जब मैं तूफान कैटरीना के बाद खाड़ी तट पर एक श्रमिक संगठनकर्ता था।

अपनी नई किताब के साथ साकेत सोनी। Image : NIA /

श्रमिकों के हक में लंबे समय से काम करने वाले साकेत सोनी की नई किताब है- द ग्रेट एस्केप - ए ट्रू स्टोरी ऑफ फोर्स्ड लेबर एंड इमिग्रेंट ड्रीम्स इन अमेरिका। सोनी की किताब उन 500 पुरुषों की दर्द भरी दास्तान कहती है जिन्हें 2006 में कैटरीना तूफान के विनाशकारी प्रभाव के बाद मिसिसिपी में खाड़ी तट की मरम्मत करते समय लगभग गुलामों जैसी परिस्थितियों में रखा गया। सभी को अमेरिका आने के लिए कम से कम 20 हजार डॉलर का भुगतान करना पड़ा था।

साकेत की नई किताब- द ग्रेट एस्केप। Image : NIA

इन सब से ग्रीन कार्ड का वादा किया गया था। लेकिन उनके सपनों को अरबों डॉलर के कॉरपोरेशन सिग्नल एलएलसी और उसके बेईमान भर्तीकर्ता सचिन दीवान ने चकनाचूर कर दिया। सोनी ने इन लोगों को न्याय और स्थायी निवास दिलाने के लिए लगभग एक दशक लंबी लड़ाई लड़ी। द ग्रेट एस्केप किताब को एल्गोंक्विन बुक्स ने छापा है। किताब को 16 जनवरी को पेपरबैक में जारी किया जाएगा। यहां प्रस्तुत है न्यू इंडिया अब्रॉड के साथ साकेत सोनी की एक संक्षिप्त बातचीत। यह पूरी बातचीत आप हमारे यूट्यूब चैनल पर देख सकते हैं।

आपसे फिर मिलकर अच्छा लगा साकेत। शुरुआत से बताएं कि आप इन लोगों से कैसे मिले?
कहानी की शुरुआत आधी रात को आए एक रहस्यमय फोन कॉल से हुई। कॉल तब आई जब मैं तूफान कैटरीना के बाद खाड़ी तट पर एक श्रमिक संगठनकर्ता था। यह 2006 की बात है। मेरा फोन बजा और दूसरी ओर से आदमी मुझे अपना नाम बताने से भी डर रहा था। उसने गुमनाम रहने पर जोर दिया। उसके बाद ऐसे ही किसी और आदमी का फोन आया। तब मैंने उनसे मिलने का फैसला किया।

उनका नियोक्ता उन्हें रविवार को सेक्रेड हार्ट कैथोलिक चर्च ले जा रहा था। मुझे वहां तीन कार्यकर्ताओं से मिलने की उम्मीद थी। मैंने कमरे का दरवाजा खोला तो अंदर 100 आदमी मेरा इंतजार कर रहे थे। पता चला कि वे 500 लोगों के एक समूह का हिस्सा थे जो खाड़ी तट में तेल रिसाव के पुनर्निर्माण के लिए भारत से आए थे।

उन लोगों को भर्ती करने वालों ने उन्हें एक अमेरिकी सपना बेचा था। लेकिन वह सपना दुःस्वप्न में बदल गया। उनसे ग्रीन कार्ड का वादा किया गया था जो कि कहीं नहीं था। बस वे सब लोग शिविरों में रहकर चौबीसों घंटे काम कर रहे थे। एक कमरे में 24 लोग रह रहे थे। किताब यह बताती है कि किस तरह से उन लोगों की मुक्ति का मार्ग निकला और फिर उनके लिए न्याय की लड़ाई शुरू हुई। इन लोगों ने जो कुछ भी किया वह बेहद जोखिम भरा और अविश्वसनीय रूप से साहसी था क्योंकि उन्हें किसी भी समय निर्वासित किया जा सकता था।

क्या इससे आपकी समझ में इजाफा हुआ कि इन लोगों के लिए क्या दांव पर लगा था?

हां इस बात को मैं समझ सकता हूं कि ये लोग अपनी लाचारी अपने परिवार के साथ भी साझा नहीं करना चाहते थे क्योंकि यह बात मैंने भी अपने परिवार को नहीं बताई थी। इससे मुझे भावनात्मक समझ मिली कि वे किस दौर से गुजर रहे थे।

क्या आप किसी ऐसे परिवार की कहानी साझा कर सकते हैं जिसके साथ आप मामला सुलझने के बाद भी वर्षों तक संपर्क में रहे हैं?

घटनाओं के खत्म होने के बाद भी मुझे इन श्रमिकों के जीवन में लंबे समय तक रहने का गहरा सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे अब मेरे लिए परिवार की तरह हैं। जैसा कि मैंने बताया कि एक आदमी ने सबसे पहले मुझे फोन किया था। वह इस किताब में एक चरित्र के रूप में मौजूद है। उसकी बेटी पांच मेडिकल स्कूलों में दाखिल हुई। इस शख्स ने बिहार से मिसिसिपी श्रमिक शिविर तक की यात्रा की। वह उस श्रमिक शिविर से भाग गया। वह वाशिंगटन चला गया। भूख हड़ताल पर गया और यह सब इसलिए हुआ ताकि वर्षों बाद उसकी बेटी एक अमेरिकी मेडिकल स्कूल में पढ़ सके। उस आदमी के लिए यह सबसे बड़ी जीत थी।

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