(अब्दुल बारी मसूद)
अयोध्या में भव्य राम मंदिर का उद्घाटन 22 जनवरी को होने जा रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल होंगे। धूमधाम और प्रतीकात्मकता से भरपूर इस आयोजन का एक उद्देश्य अप्रैल-मई 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों की जमीन तैयार करना भी माना जा रहा है।
जिस स्थान पर ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद चार शताब्दियों तक खड़ी रही थी, वहां पर मंदिर का निर्माण करने के पक्ष में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, तब यह माना जा रहा था कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवादों का अंत हो जाएगा। हालांकि यह सपना अभी तक अधूरा ही रहा है। आए दिन मस्जिदों को लक्षित करने वाली मुकदमेबाजी ने सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा ही किया है।
अयोध्या में राम मंदिर के भव्य उद्घाटन का बहुसंख्यक आबादी हालांकि बेसब्री से इंतजार कर रही है। हालांकि मुस्लिम समुदाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीतिक और कानूनी रूप से इस मुद्दे से निपटने के तरीके से निराश है। उन्हें सुरक्षा बलों की मौजूदगी में मस्जिद विध्वंस की यादें, उसके बाद हुआ खून-खराबा और फिर अदालत का फैसला अतीत के अन्यायों की दर्दनाक याद दिलाते हैं।
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि आंदोलन का मूल धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक था जिसने सामाजिक दरारों को और चौड़ा करते हुए राष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी। अब राम मंदिर का बहुप्रतीक्षित उद्घाटन समारोह अपने आप में राजनीति की अचूक छाप दिखाता है।
मुस्लिम समुदाय के बीच असंतोष की जड़ें सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले में निहित है, जिसे कई लोगों ने शुरू से ही राजनीतिक रूप से आरोपित माना है। बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे मूर्तियां रखने के प्रयास और इसके बाद फैजाबाद जिला अदालत द्वारा मस्जिद को विवादित संपत्ति मानने से ध्रुवीकरण और बढ़ गया था।
उसके बाद मस्जिद के ताले खुले, ईंट पूजा अनुष्ठान शुरू हुए, फिर 1992 में मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया। आखिर में 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के पक्ष में फैसला सुना दिया।
हिंदू पक्षकारों ने दावा किया था कि 2.77 एकड़ की विवादित भूमि जहां पर कभी मुगलकालीन मस्जिद थी, भगवान राम का जन्मस्थान है। उनका दावा था कि मंदिर को ध्वस्त करके मुस्लिम शासकों ने मस्जिद का निर्माण किया था। इस दावे के समर्थन में पुरातात्विक निष्कर्षों को सबूत के रूप में पेश किया गया था। भारतीय जनता पार्टी की रथ यात्रा 1992 में मस्जिद के विध्वंस के साथ समाप्त हुई। यह एक सबके सामने हुआ अपयश का एक पल था।
दशकों तक यह विवाद चला जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों अपने-अपने दावे करते रहे। आखिरकार नवंबर 2019 में शीर्ष अदालत के पांच न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से रामलला विराजमान (भगवान राम) के पक्ष में फैसला सुनाया। इससे मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसके साथ ही अदालत ने मुस्लिम वादियों को मस्जिद बनाने के लिए वैकल्पिक स्थान पर पांच एकड़ जमीन आवंटित करने का आदेश दिया।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) की अगुआई में मुस्लिम पक्ष ने असंतोष व्यक्त करते हुए उस समय कहा था कि सुप्रीम कोर्ट न्याय देने में नाकाम रहा है। इस्लाम में यह सिद्धांत दृढ़ता से स्थापित है कि किसी भी धार्मिक संरचना को ध्वस्त करके या भूमि पर अतिक्रमण करके मस्जिद का निर्माण नहीं किया जाता। यह सिद्धांत इतना मजबूत है कि अवैध रूप से हासिल की गई कोई भी वस्तु चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो, की अनुमति नहीं है क्योंकि ऐसा करने से अल्लाह इबादत कबूल नहीं करता।
अदालत ने मुस्लिम पक्ष द्वारा प्रस्तुत सबूतों पर विचार तो किया, लेकिन आखिर में उसने अपनी "असाधारण विवेकाधीन शक्तियों" का उपयोग करके हिंदुओं को भूमि प्रदान कर दी। अदालत के रुख में इस बदलाव को मुस्लिम संस्था का प्रतिनिधित्व करने वाले जफरयाब जिलानी ने 'दर्दनाक' माना था। कई कानूनी विशेषज्ञों और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने भी फैसले की आलोचना की थी और इसे बहुसंख्यक विश्वास के प्रतिबिंब के रूप में चिह्नित किया था।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एके गांगुली ने सवाल उठाया था कि अगर हिंदू पक्ष वहां भगवान राम के जन्मस्थान पर दावा करता तो क्या अदालत मुगल कालीन ऐतिहासिक मस्जिद बाबरी मस्जिद को गिराने का आदेश देती। उन्होंने जोर देकर कहा था कि मस्जिद का विध्वंस कानून के शासन का घोर उल्लंघन और एक बर्बरतापूर्ण कार्य था जो अंततः अल्पसंख्यक समुदाय के साथ गलत था।
कानूनी व्याख्याओं से परे, अयोध्या पर फैसले के जिम्मेदार पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ का गठन करने वाले न्यायाधीशों की नियुक्तियों का हवाला देते हुए "विवेकपूर्ण रिश्वत" के भी आरोप सामने आए थे। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा अयोध्या पीठ की अध्यक्षता करने वाले भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित करना और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर की सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति जैसे कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाते हैं।
अयोध्या फैसले को पूरी तरह से समझने के लिए केवल कानूनी व्याख्याओं पर निर्भर रहने के बजाय राजनीतिक चश्मे से देखना आवश्यक है। 1980 के दशक में मंदिर आंदोलन से प्रेरित भाजपा के राष्ट्रीय मंच पर प्रमुखता से उदय ने राजनीतिक विमर्श को नया रूप दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उदय के साथ, भगवा पार्टी और विभिन्न हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों ने अपनी उपस्थिति को और मजबूत किया है। यहां तक कि कांग्रेस सहित स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष दलों ने हिंदू मूल्यों को मानते हुए राम मंदिर निर्माण को स्वीकार किया है। व्यवहार में ये पार्टियां धर्मनिरपेक्षता का खुलकर समर्थन करने से दूर रहती हैं और इसके बजाय खुद को धर्मनिष्ठ हिंदुओं के रूप में स्थापित करने का लक्ष्य रखती हैं।
अयोध्या में राम मंदिर के भव्य उद्घाटन की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, यह कुछ लोगों के लिए विजय का प्रतीक है और दूसरों के लिए असंतोष का वजह। कानूनी लड़ाई भले ही खत्म हो गई हो, लेकिन बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि आंदोलन से पैदा हुए सामाजिक विभाजन और सांप्रदायिक तनाव अभी भी बने हुए हैं, जो देश के राजनीतिक परिदृश्य पर एक लंबी छाया डालते हैं। यह मंदिर एकता का प्रतीक बनता है या कलह को कायम रखता है, यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब केवल समय ही दे सकता है।
लेखक बैंगलोर स्थित सालार डिजिटल चैनल से जुड़े हैं और बंगाली दैनिक पुबेर कलोम और रेडियंस साप्ताहिक में योगदान देते हैं। वह तीन दशकों के अनुभव वाले द्विभाषी पत्रकार हैं।
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