अमेरिका में रहने वाले भारतीय समुदाय के लोग जब तब किसी डरावनी फोन कॉल से सवेरे अपनी आंखें खोलते रहे हैं। पता चलता है कि किसी भारतीय छात्र की हत्या कर दी गई है। या किसी भारतीय-अमेरिकी परिवार की उसके घर या सड़क पर हत्या या मौत हो गई है। हत्या और आत्महत्या की भयावह खबरों से भी इस समुदाय की सुबहें हुई हैं। ऐसा खबरें सुनकर आंखें भर आती हैं और गला रुंध जाता है जब पता लगता है कि किसी सनकी-सिरफिरे ने स्कूल में या उसके बाहर अंधाधुंध गोलियां बरसाकर कई घरों के चराग बुझा दिये। नैनो सेकिंड में सब खत्म हो जाता है। हाल ही में सैन मेटो में हुई त्रासदी भी एक ऐसी ही बुरी खबरों का सिलसिला है जिसमें एक युवा पति-पत्नी और उनके जुड़वां बच्चे मारे गए।
आंकड़े गंभीर और निराशाजनक हैं लेकिन कुछ ऐसा है जिसे छिपाया नहीं जा सकता। संयुक्त राज्य अमेरिका में हर साल लगभग 43000 लोग बंदूक हिंसा से मरते हैं। बंदूक से निकली गोली 25000 लोगों की आत्महत्या का सबब बनती है। संगठनों के अनुसार संख्याएं अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन यह निस्संदेह एक सुन्न करने वाला परिदृश्य है कि जिस देश में 18 या 21 वर्ष की आयु तक सिगरेट और शराब खरीदना अवैध है वहां बंदूकों के कारण इतनी सारी जानें चली जाती हैं।
अमेरिका में कट्टरपंथियों का भी एक वर्ग है। इसी वर्ग ने भारतीय-अमेरिकियों सहित भारतीय मूल के लोगों को कई कारणों से निशाना बनाया है। उनके दिखने या कपड़े पहनने के तौर-तरीके पर भी इन समुदायों के लोग कट्टरपंथियों की नफरत का निशाना बने हैं। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर अधिकारियों से यह मांग की जाती है कि वे नफरती गतिविधियों में शामिल लोगों पर घृणा अपराध के आरोप लगाएं। यह जानते हुए भी कि ऐसे मामलों में सजा मुश्किल हो सकती है। भारतीय छात्रों पर हाल ही में हुए हमलों ने वाजिब तौर पर यह चिंता पैदा कर दी है कि क्या यह हिंसा जातीयता के आधार पर अचानक है अथवा किसी सोच के साथ। अलबत्ता, किसी भी लोकतंत्र में कानूनी प्रक्रिया तो चलानी ही होगी।
विडंबना यह है कि किसी समुदाय के लिए दुख और प्रलाप ऐसे समय में है जब उसे गोद लेने वाली भूमि में उसके योगदान के लिए आम तौर पर मान्यता दी गई है। भारतीय अमेरिकियों ने किसी भी चुने हुए पेशे में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है और उनकी औसत वार्षिक आय देश की औसत वार्षिक आय से लगभग दोगुनी है। स्नातक या उच्चतर डिग्री वाले भारतीय अमेरिकियों की हिस्सेदारी भी राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से लगभग 40 लाख का यह समुदाय एक शक्तिशाली आवाज बन गया है।
राष्ट्रपति जो बाइडन ने हाल ही में नासा में एक भारतीय मूल के वैज्ञानिक के साथ बातचीत में उपराष्ट्रपति कमला हैरिस और भाषण लेखक विनय रेड्डी का जिक्र करते हुए कहा था- भारतीय-अमेरिकी इस देश पर कब्जा कर रहे हैं... आप लोग अविश्वसनीय हैं। राष्ट्रपति बाइडन इशारा कर रहे थे कि भारतीय-अमेरिकियों ने 1911 के बाद से एक लंबा सफर तय किया है जब अमेरिकी कांग्रेस द्वारा स्थापित एक विशेष आयोग ने कहा था कि हिंदुओं को 'संयुक्त राज्य अमेरिका में अब तक आये अप्रवासियों की सबसे कम वांछनीय जाति के रूप में माना जाता है।'
ऐसे परिवेश में जहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता भारतीय-अमेरिकियों, चाहे वे छात्र हों जो अपने सपनों और जुनून की तलाश में भारत से आए हों या पूर्ण पेशेवर, ने समाज में अपना स्थान अर्जित करने के लिए कड़ी मेहनत की है। लेकिन टॉप टेन, ट्वेंटी या फिफ्टी की सभी ज्ञात सूचियों में जगह बनाने की दौड़ में यह सोचने के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया गया कि अब तक का यह रास्ता कैसा रहा है और असफलताओं की स्थिति में क्या हुआ। यहीं पर भारतीय-अमेरिकी समुदाय के पेशेवरों को परामर्श देने के लिए आगे आना चाहिए। केवल बंदूकों या घर में हथियार की मौजूदगी को दोष देने से काम नहीं चलेगा।
Comments
Start the conversation
Become a member of New India Abroad to start commenting.
Sign Up Now
Already have an account? Login