भारत के महानगर कोलकाता में हर साल दुनिया के सबसे पुराने व्यापार को एक प्राचीन परंपरा से क्षणिक सम्मान मिलता है। तब जब वेश्यालयों के बाहर की मिट्टी को पवित्र माना जाता है और हिंदू अनुष्ठानों के लिए एकत्र किया जाता है।
पूर्वी बंदरगाह शहर के हमेशा व्यस्त रहने वाले रेड लाइट इलाके में काम करने वालों का कहना है कि प्रतिष्ठित पृथ्वी समाज के भेदभावपूर्ण रवैये का एक कड़वा प्रतिबिंब है। जरूरत पड़ी तो स्वीकार किया अन्यथा प्रतिकार।
हिंदू भक्तों द्वारा वेश्यालयों के दरवाजे के बाहर की मिट्टी को पवित्र माना जाता है। उनका मानना है कि यह विशेष गुणों से युक्त होती है क्योंकि यह वह जगह है जहां पुरुष सेक्स के लिए प्रवेश करने से पहले वह सब कुछ छोड़ देते हैं जो अच्छा है।
इस निकाली गई मिट्टी को प्रिय देवी दुर्गा की चमकीले रंग की मूर्तियां बनाने वाली मिट्टी में शामिल किया जाता है या त्योहार के लिए बनाई गई मूर्तियों को पृथ्वी पर 'स्नान' कराने के लिए उपयोग किया जाता है।
कोलकाता के सोनागाछी रेड लाइट इलाके में काम करने वाली 30 साल की महिला सेक्स वर्कर सलीमा गंदगी इकट्ठा करने की परंपरा से नाराज हैं। सलीमा कहती हैं कि समाज हम लोगों को गरिमाहीन मानता है। सलीमा असल नाम नहीं है।
मिट्टी इकट्ठा करना भारत के पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े त्योहार यानी दुर्गा पूजा की परंपरा का हिस्सा है। इस साल भी यह त्योहार शुरू होना वाला है। सलीमा तंज करती हैं- जब आप मेरे हाथ से मिट्टी चाहते हैं तो आप अचानक मेरा सम्मान करते हैं। यह कैसा नियम है?
दूसरा पहलू
भारतीय संस्कृति की तालीम देने वाली सर्व भारतीय प्राच्य विद्या अकादमी के संस्थापक 64 वर्षीय जयंत कुशारी कहते हैं कि जो पुरुष सेक्स वर्कर के घर में प्रवेश करते हैं वे अपनी सारी अच्छाइयां उसके दरवाजे पर छोड़ जाते हैं। इसीलिए सेक्स वर्कर के घर के बाहर की उस मिट्टी को पवित्र माना जाता है। कुशारी ने कहा कि मिट्टी का उपयोग मूर्तियों को 'धोने' के लिए किया जाना चाहिए।
विरोधाभास
लेकिन यौनकर्मियों का कहना है कि गंदगी इकट्ठा करने वाले किसी भी व्यक्ति ने उन्हें दुर्गा पूजा उत्सव में शामिल होने के लिए आमंत्रित नहीं किया। पुष्पा (छद्म नाम) कहती हैं- वे हमें पहचानते भी नहीं हैं, वे लोग हमें घृणा की दृष्टि से देखते हैं।
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