दुनिया इस बात का बेसब्री से इंतजार कर रही है कि बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार हाल ही में ईरानी मिसाइल और ड्रोन हमले के जवाब में क्या कदम उठाएगी। इस हमले में ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, हालांकि एक युवा इजरायली लड़की की मौत हो गई थी। ईरान ने ये हमला सीरिया में अपनी राजनयिक इमारत पर हमले में रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के कुछ टॉप जनरलों की मौत के बाद किया था। इस कार्रवाई के तहत 300 से अधिक प्रोजेक्टाइल दागे गए थे, लेकिन खुफिया सूचनाओं और टेक्नोलोजी की मदद से उनमें से अधिकांश को नाकाम कर दिया गया।
इस मामले की गूंज संयुक्त राष्ट्र से लेकर दुनिया भर में सुनाई दे रही है। भारत समेत कई मुल्क संयम बरतने की जोरदार अपील जारी कर रहे हैं, जैसे कि कोई इसके उलट कदम उठाने का आह्वान कर देगा। हालांकि इस बात की आशंका से ही हालात डरावने लग रहे हैं कि काफी लंबे समय के बाद तेहरान की तरफ से इस सीधे आक्रमण पर तेल अवीव चुप नहीं बैठेगा। इजरायली रक्षा कैबिनेट के पास ईरान पर बड़ा सैन्य आक्रमण, साइबर युद्ध और अन्य देशों में ईरान की संपत्ति पर हमले बढ़ाने जैसे कई विकल्प मौजूद हैं। लेकिन हाल फिलहाल नेतन्याहू ने वही विकल्प आजमाने का निर्णय लिया है, जो संकट के समय सबसे पहले उपलब्ध रहता है - कुछ भी न करने का विकल्प।
सीरिया में अपनी संपत्ति पर हमले के बाद ईरान की तरफ से किसी भी तरह के प्रतिशोध की उम्मीद न रखना एक तरह से नादानी ही होती। जैसा कि कहा जा रहा है कि इस्लामी राज्य ने अपनी प्रतिक्रिया का पैमाना भी बहुत ही कैलकुलेटिव और न्यूनतम रखा। शायद घरेलू मोर्चे पर भावनाओं को संभालने के इरादे से ऐसा किया गया होगा। दूसरी तरफ, जो बाइडेन प्रशासन ने भी वोट बैंक को देखते हुए बैलेंस बनाए रखा है। एक तरफ वह यहूदी राज्य के पक्ष में खड़े हैं, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने नेतन्याहू को स्पष्ट कह दिया है कि ईरान के खिलाफ किसी भी प्रत्यक्ष प्रतिशोध में अमेरिका पक्षकार नहीं बनेगा।
कट्टरपंथी रिपब्लिकन नेता राष्ट्रपति बाइडेन के ऊपर शर्मिंदगी की तोहमत लगा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने तर्क दिया कि अगर वह व्हाइट हाउस में होते तो ईरान ये हमला नहीं कर पाता। यह जिमी कार्टर और 1979 के बंधक संकट की याद दिलाता है, जब इसी तरह के शब्द प्रयोग किए गए थे और कहा गया था कि बेहतर होता कि 52 अमेरिकी बंधक को ईरान की कैद में न होते क्योंकि राष्ट्रपति रीगन को 20 जनवरी 1981 को शपथ दिलाई जा रही थी। रिपब्लिकन प्रशासन 1981 या 2024 में आखिर क्या कर पाता? शायद परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की आशंका को बढ़ावा देने से ज्यादा कुछ नहीं?
बात जब मध्य पूर्व की आती है तो भारत के लिए चीजें एकसमान नहीं रह पातीं। 1950 और 1990 के दशक के पुराने अच्छे दिन अब लद चुके हैं, जब भारत अक्सर इजरायल की निंदा करता था ताकि फिलिस्तीनियों की संवेदनशीलता को और चोट न लगे। लेकिन 2000 के बाद से इजरायल भारतीय कूटनीति में एक प्रमुख सकारात्मक कारक के रूप में उभरा है। न सिर्फ व्यापार के मामले में बल्कि रक्षा एवं मिसाइल टेक्नोलोजी से लेकर खुफिया ट्रेनिंग तक के मामले में इजराइल और भारत की दोस्ती मजबूत हुई है।
नई दिल्ली ने जब संयुक्त राष्ट्र में गाजा पर पहली बार वोटिंग से गैरहाजिर रहने का फैसला किया था, तब भारत समेत कई जगहों पर हायतौबा मच गई थी। भारत सरकार पर फिलिस्तीनियों को उनकी हालत पर "छोड़ देने" की तोहमत लगाई जा रही थी। तब आधिकारिक तौर पर याद दिलाया गया था कि ये गैरहाजिरी सिर्फ एक सैद्धांतिक वजह से थी: प्रस्ताव में हमास के आतंकवादी हमले का जिक्र शामिल कर लिया जाए। पिछले छह महीनों से वोटिंग के समय भारत का पैटर्न बना हुआ है। उसकी तरफ से लगातार कहा जा रहा है कि वह वैश्विक निकाय या उसकी फंक्शनल एजेंसियों के प्रस्ताव में संतुलन पर जोर देता रहेगा।
भारत और ईरान के संबंध परंपरागत और सभ्यतागत रूप से मजबूत रहे हैं। ये संबंध राजनीति और व्यापार से परे हैं। भारत के लिए ईरान अमेरिका के दबाव के बावजूद तेल आपूर्ति का एक विश्वसनीय स्रोत है। भारत को वहां से न केवल प्रतिस्पर्धी कीमतों पर तेल मिलता है, बल्कि वह भुगतान और लेनदेन में भी मोलभाव की स्थिति में रहता है। कहा जाता है कि भारत के लिए तेहरान को उसके राष्ट्रीय सुरक्षा हितों या इजरायल से जुड़े मामले में आधिकारिक रूप से लेक्चर देना आसान नहीं होगा।
तात्कालिक संदर्भ देखें तो भारत ईरानी जल क्षेत्र में जब्त किए गए जहाज में सवार भारतीय नाविकों को लेकर चिंतित है। लेकिन खाड़ी और उसके विस्तारित पड़ोस के साथ संबंधों को धुएं में नहीं उड़ने दिया जा सकता। आखिर वह इलाका 70 लाख से ज्यादा भारतीय प्रवासियों का घर जो है।
(*डॉ. श्रीधर कृष्णस्वामी न्यू इंडिया अब्रॉड के प्रधान संपादक हैं।)
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