भारत का बेंगलुरु शहर (जिसे पहले बैंगलौर कहा जाता था) इन दिनों अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है। यहां पानी का संकट गहराया हुआ है। शहर के हजारों निवासी पानी के टैंकरों का पीछा करते नजर आ रहे हैं। उन्होंने नहाना तक कम कर दिया है। पानी इकट्ठा करने के चक्कर में उन्हें अक्सर दफ्तरों से छुट्टियां लेनी पड़ रही हैं। वे धंधे रोजगार पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।
टेक हब बेंगलुरू कई वॉलमार्ट, इंफोसिस और विप्रो जैसी तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अनगिनत स्टार्ट अप्स का ठिकाना है। शहर की 1.5 करोड़ की आबादी को रोजाना कम से कम दो अरब लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इसमें से 70% से अधिक आपूर्ति कावेरी नदी से होती है। कावेरी नदी कर्नाटक राज्य से ही निकलती है, जहां की राजधानी बेंगलुरु है। लेकिन कावेरी नदी के पानी को लेकर कर्नाटक पिछली लगभग एक सदी से अपने पड़ोसी राज्य तमिलनाडु के साथ जल-बंटवारे के विवाद में उलझा हुआ है।
शहर की जरूरत का बाकी 60 करोड़ लीटर पानी बोरवेल के जरिए धरती से निकाला जाता है। ये पानी टैंकरों के जरिए शहर में वितरित किया जाता है। शहर के बाहरी इलाकों में रहने वाले लोग खासतौर से इन टैंकरों पर निर्भर हैं। पिछले साल कमजोर मानसून ने भूजल स्तर काफी कम कर दिया था। इससे धरती के नीचे पानी तक पहुंचने के लिए और ज्यादा गहरे बोरवेल की जरूरत पड़ने लगी है। इसका नतीजा ये हो रहा है कि फिलहाल 20 करोड़ लीटर पानी की रोजाना कमी हो रही है।
पिछले साल कमजोर मानसून और भूजल स्तर में गिरावट को देखते हुए अधिकारियों ने कई उपाय लागू किए। इनमें टैंकरों की कीमतों को रेगुलेट करना और ऐसे व्यक्तियों पर जुर्माना लगाना शामिल है जो गैर-आवश्यक कार्यों जैसे बागवानी और वाहन धोने आदि के लिए पीने के पानी का उपयोग करते हैं। हालांकि कुछ विशेषज्ञ इन उपायों की आलोचना करते हुए नियमों की प्रभावी निगरानी और उन्हें लागू करने की व्यवहार्यता पर सवाल उठाते हैं।
2 दशक से बेंगलुरू में रह रहे इंफोटेक कमेंटेटर आनंद पार्थसारथी ने इस मामले पर एनआईए से विशेष बातचीत की। वह कहते हैं कि 1999 से 2004 के दौरान बेंगलौर जब सदी के सबसे अहम मोड़ पर था और भारत की सिलिकॉन वैली के रूप में मशहूर हो रहा था, उस समय कर्नाटक राज्य में एसएम कृष्णा मुख्यमंत्री थे। उनके बारे में एक कहानी प्रचलित है। कहा जाता है कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से कहा था कि वे बेंगलौर में भारतीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने नीतिगत बाधाएं न खड़ी करें और उन्हें बिना परेशानी के अपना काम करने दें। उनका कहना था कि यदि आप कंपनियों की मदद नहीं कर सकते तो कम से कम उनके काम में बाधा न डालें।
पार्थसारथी कहते हैं कि कृष्णा की यह नीति तब तक अच्छी साबित हुई, जब तक कि उनके बाद की सरकारें एक अहम मोर्चे पर नाकाम साबित न होने लगीं। यह मोर्चा था बुनियादी ढांचे का। अधिकतर कंपनियों के लिए ट्रांसपोर्ट एक बड़ी बाधा बनकर उभरा। उच्च तकनीकी उत्कृष्टता के आइलैंड तो बन गए लेकिन उन तक कनेक्टिविटी ट्रैफिक जाम में फंस गई। मेट्रो रेल के विस्तार के बाद चीजें थोड़ी आसान हुई हैं, लेकिन हालात अब भी सुगम नहीं हैं।
पार्थसारथी कहते हैं कि पानी की कमी का मुद्दा बैंगलोर के तकनीकी क्षेत्रों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुका है। कोरोना काल में शहर ने बीमारी से बचने के लिए वर्क फ्रॉम होम का कल्चर अपनाया था। लेकिन अब पानी की कमी घरों और ऑफिसों को प्रभावित कर रही है। सबसे अहम बात ये है कि इसका कोई तत्काल समाधान नहीं दिख रहा है। आने वाले हफ्तों में गर्मी बढ़ने पर हालात और भी खराब हो सकते हैं। जून में मानसून आने पर जब झील और तालाब भरेंगे, तभी राहत की उम्मीद है।
चार दशक से बेंगलुरु में रह रहे व्यवसायी जसप्रीत सिंह शहर में बड़े पैमाने पर गैर-नियोजित विकास और जल निकायों पर अतिक्रमण को इस जल संकट का असली कारण मानते हैं। उन्होंने कहा कि रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की कमी और पेयजल के दुरुपयोग व बेतरतीब इस्तेमाल, नागरिक जिम्मेदारी में कमी जैसे कारणों ने संकट को और बढ़ा दिया है। जल संकट की वजह से कई उद्योगों की उत्पादकता में कमी आ गई है। हालांकि कार धोने, बागवानी आदि में पीने के पानी के इस्तेमाल पर रोक, प्रभावित इलाकों तक टैंकरों से पानी उपलब्ध कराने और आम लोगों को संकट के बारे में आगाह करने जैसे सरकार के कदम अच्छे हैं। सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि मानसून आने पर भूजल स्तर को बढ़ाने का सिस्टम अभी से बनाना शुरू कर दे।
एक एआई स्टार्टअप के संस्थापक रितेश माथुर का मानना है कि इस संकट ने वैश्विक स्तर पर भारत की सिलिकॉन वैली की छवि को प्रभावित किया है। उन्होंने एनआईए से कहा कि इस संकट से छोटे और मध्यम दर्ज के व्यवसाय अधिक प्रभावित होंगे क्योंकि सीमित संसाधनों के कारण उन्हें दिन-प्रतिदिन के कार्यों के लिए पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए अधिक भुगतान करना पड़ रहा है। इससे उनका रेवेन्यू प्रभावित होगा।
माथुर ने कहा कि जल संकट कोई ऐसी चीज नहीं है, जो रातोंरात पैदा हुई हो। यह वर्षों से चली आ रही समस्या है, जो अब गंभीर रूप ले चुकी है। इसके लिए सरकारें ही नहीं, सिविक सोसायटियां भी जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने न तो आने वाले संकट को पहचाना और न ही उससे निपटने की नीतियां बनाईं। उन्होंने कहा कि कर्नाटक सरकार की तरफ से अब जो उपाय आनन फानन में लागू किए जा रहे हैं, उनका दीर्घकालिक प्रभाव नहीं होगा। ये उपाय लंबी अवधि तक समाधान नहीं दे पाएंगे।
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