-ऋचा गौतम
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने उस समय भारत को नस्ल और जाति के आधार पर विभाजित किया जब भारत दुनिया का सबसे अमीर देश था। इन विभाजनों ने अंग्रेजों को गुलामी को संस्थागत बनाने में मदद की। इससे भारत गरीबी के भंवर में चला गया और कंगाल हो गया। आज सबसे अमीर राष्ट्र के रूप में अमेरिका को जाति और नस्ल के समान विभाजनकारी औपनिवेशिक उपकरणों के पुनरुत्थान पर चिंतित होना चाहिए। इसलिए क्योंकि जो लोग इतिहास को नजरअंदाज करते हैं वे उसे दोहराते हैं।
जब ओपरा ने इसाबेल विल्करसन की पुस्तक 'कास्ट द ओरिजिन्स ऑफ अवर डिसकंटेंट' का समर्थन किया तो इसने अमेरिकी आख्यानों के प्रक्षेप पथ को बदल दिया जिससे पहचान की राजनीति में नए आयामों का जन्म हुआ। इसने ध्रुवीकरण नीतियों, विवादास्पद मुकदमों और तीव्र मीडिया बहस की आग भड़का दी। इस यू-टर्न से कई साल पहले ओपरा (जो कभी ट्रेंडसेटर थीं) ने विविधता शिक्षक जेन इलियट और उनके 'ब्लू आइज, ग्रीन आइज' प्रयोग का समर्थन किया था, जिसने आज की दुनिया में नस्ल और जाति विभाजन की विद्रूपता को उजागर किया था।
हमारे 2023 कास्टकॉन सम्मेलन में विविधता (डायवर्सिटी) शिक्षक जेन इलियट ने गर्जना की थी कि 'जाति और नस्ल झूठ हैं, जो महाद्वीपों को उपनिवेश बनाने के लिए बनाए गए हैं।' वह सही थी। उपनिवेशवादियों ने लोगों को वर्गीकृत करने के लिए त्वचा के रंग का उपयोग किया और रक्त की शुद्धता निर्धारित करने के लिए द्विजातीय बच्चों को पदानुक्रमित जाति प्रणाली या सिस्टेमा डी कास्टास के माध्यम से वर्गीकृत किया गया। विल्करसन ने नस्ल को त्वचा और जाति को हड्डियों के रूप में वर्णित किया है। किंतु यह केवल आंशिक रूप से सत्य था।
हां, नस्ल का तात्पर्य त्वचा के रंग से है लेकिन जाति हड्डियां नहीं है। यह रक्त के बारे में है, विशेष रूप से रक्त की शुद्धता के बारे में, जिसे उपनिवेशवादियों ने व्यवस्थित रूप से परिभाषित और प्रलेखित किया है। जाति वास्तव में एक यूरोपीय निर्मिति थी, भारतीय नहीं।
इसलिए यह बात बेतुकी है कि एक विविध भारत, जो कभी उपनिवेशवादी नहीं था, को 'जाति व्यवसायी' कहा जाता था। एक त्वचा रोग की तरह, यह विदेशी ठप्पा भारतीयों पर 'कुली' या एक गाली के साथ थोप दिया गया था।
इंडियन कुली से व्हाइट एडजेंट तक का सफर
भारतीय समाज अपनी समृद्ध विविधता के साथ पारंपरिक रूप से कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, संप्रदाय और धर्म जैसी प्रणालियों के माध्यम से खुद को संगठित करता है। हालांकि उपनिवेशवादियों ने इन अलग-अलग श्रेणियों को एक समरूप गड़बड़ी में मिला दिया जिससे जाति का सर्वव्यापी और हानिकारक मिथ्या नाम तैयार हो गया।
भारतीय अमेरिकी, मजबूत पारिवारिक मूल्यों वाला एक उच्च कुशल अप्रवासी समूह, अमेरिका में सबसे धनी जातीय अल्पसंख्यक बन गए हैं। हालांकि उनके उपनिवेशीकरण और उत्पीड़न के इतिहास को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसके बजाय उन्हें एक नया उपनाम दिया गया- व्हाइट एडजसेंट। यह जटिल सिद्धांत के तहत उन्हें एक द्विआधारी ढांचे में उत्पीड़कों के रूप में रखता है। और यह एक और थोपी हुई पहचान है। हमारी गुलामी, उत्पीड़न और उपनिवेशीकरण के साझा इतिहास पर दोबारा गौर करने पर पता चलता है कि भारतीय जनसंख्या अफ्रीकियों जितनी ही गुलाम थी। कुछ उदाहरण...
एक : भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बेरहम कपास बागान
1700 के दशक में जब काले गुलाम इंग्लैंड की मिलों का पेट भरने के लिए अमेरिकी कपास बागानों में पसीना बहा कर रहे थे ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय केलिको (केलिको एक सादा बुना हुआ सूती कपड़ा है जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी) पर प्रतिबंध लगाकर भारत के कपड़ा उद्योग को पंगु बना रही थी। उन्होंने क्रूर कानून भी लागू किए और भारतीय कपास किसानों, कुशल बुनकरों और कारीगरों को बटाईदारी और मुगल जमींदारी प्रणाली के दमनकारी रूप के माध्यम से गरीबी में धकेल दिया। इस शोषण ने भारत की एक समय संपन्न निर्यात अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया। वस्तुतः ब्रिटेन की मिलों को मुफ्त कपास प्रदान किया और एक नया उत्पीड़ित वर्ग 'दलित' पैदा किया। मानवविज्ञानी सी.जे. फुलर ने ब्रिटिश हितों की सेवा करने वाले घनिष्ठ बिचौलियों या जमींदारों को एक 'नकली मध्यम वर्ग' के रूप में वर्णित किया, जिसने भारत के वास्तविक मध्यम वर्ग को नष्ट कर दिया। जबकि गुलामी श्वेत व्यक्ति की अंतरात्मा को परेशान कर रही है, दलितों का निर्माण चालाकी से भारत के सम्मानित ब्राह्मणों पर थोप दिया गया।
दो : कुत्तों, भारतीयों और नीग्रो का प्रवेश निषेध
अफ्रीकी और भारतीय दोनों को उन क्लबों और प्रतिष्ठानों में प्रवेश करने से रोक दिया गया था, जहां 'कुत्तों और भारतीयों को अनुमति नहीं है' या 'कुत्तों और नीग्रो को अनुमति नहीं है' जैसे अपमानजनक संकेतक लगाये गए थे। हालांकि संयुक्त राज्य अमेरिका में मुलट्टो और नीग्रो जैसी औपनिवेशिक जाति पहचान सूचकों या व्यवहार पर प्रतिबंध लगा दिया गया किंतु भारत अज्ञानतापूर्वक कुली और दलित जैसी औपनिवेशिक पहचान का उपयोग करना जारी रखता है।
तीन : अश्वेतों की मुक्ति ने भारतीय गिरमिटिया को जन्म दिया
गुलामी ख़त्म नहीं हुई। यह बस वैध गिरमिटिया श्रम में बदल गया। इन कठोर, शोषणकारी अनुबंधों ने भारतीयों को दुनिया भर में ब्रिटिश बागानों में जबरन प्रवासन में सक्षम बनाया जहां उन्हें क्रूर परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। कई 'भारतीय कुली' बड़ी संख्या में मारे गए। कैरेबियाई रिकॉर्ड से पता चलता है कि 1800 और 1900 के दशक में ब्रिटिश और विदेशी गुलामी-विरोधी सोसायटी ने कुलियों पर थोपी गई 'भयानक मृत्यु दर और भयानक मनोबल' को समाप्त करने के लिए तत्काल आह्वान किया था। वास्तव में गिरमिटिया मजदूरी गुलामी का ही दूसरा रूप था।
चार : 1964 के अमेरिकी नागरिक अधिकार अधिनियम ने भारतीयों पर से अप्रवासन प्रतिबंध हटा दिया
1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम ने सार्वजनिक स्थानों पर अलगाव को समाप्त कर दिया और काले अमेरिकियों को स्वतंत्रता और सम्मान देते हुए रोजगार भेदभाव पर प्रतिबंध लगा दिया। इसी अधिनियम ने भारतीयों पर से प्रतिबंध हटा दिया, जिससे उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवास करने की अनुमति मिल गई।
इसके अतिरिक्त नागरिक अधिकार नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर मोंटगोमरी बॉयकॉट और अन्य सक्रियता के दौरान महात्मा गांधी के सिद्धांतों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित थे। कई संबंध हैं और भारतीय अमेरिकियों को इस 'काली निकटता' को पहचानने और अपनाने तथा दोनों समुदायों के बीच बेहतर सेतु बनाने की जरूरत है। हमारा थिंकटैंक, कास्टफाइल्स लगातार इस दिशा में काम कर रहा है और सक्रिय है। अफ्रीकी अमेरिकियों ने औपनिवेशिक पहचान से मुक्ति पाने का बेहतर काम किया है जबकि भारतीयों ने औपनिवेशिक 'खुमार' को नहीं उतारा है। जाति, दलित और आदिवासी जैसी पहचनों का इंडिक नृवंशविज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है।
उपनिवेशवाद से मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं भारतीय अमेरिकी
प्रसिद्ध मार्क्सवादी टेरी ईगलटन नस्ल, जाति और लिंग समूहों को राजनीतिक संस्कृतियां बताते हैं। भारतीय अमेरिकी और औपनिवेशिक बंधनों से लेकर सफल अप्रवासियों तक की उनकी यात्रा दुनिया भर में अश्वेतों, गोरों, यहूदियों और यहां तक कि स्वदेशी मूल निवासियों के साथ एक पारस्परिक पहचान साझा करती है। दुनिया की सबसे लंबी निरंतर सभ्यताओं में से एक के रूप में भारत में सुप्त सभ्यतागत ऊर्जा को जगाने और गैर-उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने की क्षमता है। ऐसे विश्वदृष्टिकोण की तत्काल आवश्यकता है जो मानवता की विविध पहचानों और अनुभवों को पहचाने और उन्हें जोड़े। केवल इस अंतर्संबंध को अपनाकर ही हम नस्ल, जाति, लिंग और रंगवाद की विभाजनकारी राजनीतिक संस्कृतियों पर काबू पा सकते हैं और वास्तव में अपनी साझा मानवता का जश्न मना सकते हैं।
(ऋचा गौतम कास्टफाइल्स नामक नागरिक अधिकार वकालत थिंक टैंक की संस्थापक हैं और केयर्स-ग्लोबल में कार्यकारी निदेशक हैं। केयर्स एक मानवाधिकार समूह है जो शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए काम करता है)
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