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भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती इकोनमी, विश्व बैंक की फिर लगी मुहर

विश्व बैंक ने अपनी ताजा वैश्विक आर्थिक संभावना रिपोर्ट में कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत में सबसे तेज विकास दर बने रहने की उम्मीद है।

विश्व बैंक ने भारत के जीडीपी ग्रोथ के पहले के अनुमान को कायम रखा है।  / फोटो साभार सोशल मीडिया

भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था है, इस पर एक बार फिर विश्व बैंक ने मुहर लगाई है। इसी के साथ भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) ग्रोथ के पहले के अनुमान को कायम रखा है। 

विश्व बैंक ने मंगलवार को प्रकाशित अपनी वैश्विक आर्थिक संभावना रिपोर्ट में कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत में सबसे तेज विकास दर बने रहने की उम्मीद है। हालांकि महामारी के बाद इसकी रिकवरी कुछ धीमी होने की संभावना है। इसके बावजूद वित्त वर्ष 2024 में भारत की जीडीपी में 6.3 प्रतिशत की अनुमानित वृद्धि हो सकती है।
 
भारत की जीडीपी का ग्रोथ पूर्वानुमान पिछले साल जून से स्थिर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जीडीपी ग्रोथ धीरे-धीरे पटरी पर आने की उम्मीद है और यह वित्त वर्ष 2015 के 6.4% और वित्त वर्ष 2016 के 6.5% के स्तर तक पहुंच सकती है। निवेश में मामूली गिरावट की संभावना है, लेकिन वह मजबूत बना रहेगा क्योंकि बैंकिंग क्षेत्र और बेहतर कॉर्पोरेट बैलेंस शीट से उच्च सार्वजनिक निवेश की उम्मीद बनी हुई है। 

विश्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि निजी खपत की वृद्धि दर कम होने की संभावना है क्योंकि महामारी के बाद मांग में कमी आई है। लगातार खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति के कारण खर्च में बाधा आने की भी संभावना है, खासकर कम आय वाले परिवारों में इसकी संभावना अधिक है। हालांकि खर्च घटाने के केंद्र सरकार के प्रयासों के अनुरूप सरकारी खपत धीरे-धीरे बढ़ने की उम्मीद है। 

रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि भारत सहित कई दक्षिण एशियाई देशों में आगामी दिनों में संसदीय चुनावों को लेकर बढ़ती अनिश्चितता विदेशी निवेश सहित निजी क्षेत्र की गतिविधियों को धीमा कर सकती है। वैश्विक स्तर पर कड़ी मौद्रिक नीति, प्रतिबंधात्मक वित्तीय स्थितियों और कमजोर वैश्विक व्यापार एवं निवेश के प्रभावों से इस वर्ष विकास दर और धीमी होकर 2.4% तक गिर सकती है। 

आउटलुक के नकारात्मक जोखिमों में मध्य पूर्व में हालिया संघर्ष का बढ़ना, कमोडिटी बाजार में व्यवधान, बढ़े हुए कर्ज और उच्च उधारी लागत के बीच वित्तीय तनाव, मुद्रास्फीति, चीन में उम्मीद से कमजोर गतिविधियां और जलवायु आदि शामिल हैं। 

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