अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मियां जोरों पर हैं। दोनों दलों के नेशनल कन्वेंशन हो चुके हैं। डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों पार्टियां विदेश नीति जैसे तमाम मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट कर रही हैं। हालांकि दोनों ही पार्टियों के एजेंडा से एक महत्वपूर्ण मुद्दा गायब है, वह मुद्दा है पाकिस्तान का।
पाकिस्तान अब अमेरिका का रणनीतिक साझेदार नहीं रह गया है। अगर चीन को छोड़ दें तो वह किसी भी अन्य देश का भी वैध साझेदार नहीं है। हालांकि पाकिस्तान और इलाके के हालिया घटनाक्रमों को व्यापकता में देखें तो अमेरिका की सत्ता में आने वाली किसी भी सरकार को सबसे खराब परिस्थिति की तैयार शुरू करने की जरूरत है।
2022 के बाद जबसे पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान, जिन्हें प्यार से Im the dim कहा जाता है, की सरकार का पतन हुआ है, पाकिस्तान के सामने मौजूद विकराल संकट के विस्फोट की भविष्यवाणियां आम हो चुकी हैं।
क्या इन भविष्यवाणियों में वास्तव में कोई दम है या फिर ये केवल अतिश्योक्ति हैं, ये असली सवाल है। और अगर पाकिस्तान में वाकई गिरावट का ऐसा दौर चल रहा है जिससे वह उबर नहीं सकता तो अमेरिका में सत्ता संभालने के बाद नई सरकार की उसे लेकर क्या नीति होनी चाहिए?
आगे बढ़ने से पहले कुछ बातें समझना जरूरी है। उदाहरण के लिए, विकराल संकट के विस्फोट से क्या मतलब है। इसका मतलब वास्तव में देश का पूर्ण विघटन नहीं है। इसका अर्थ एक ऐसी कमजोर केंद्रीय सरकार से है जो राजधानी इस्लामाबाद में और रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय से आगे अपनी ताकत या कानून के शासन का विस्तार करने में असमर्थ है। अराजकता की इस स्थिति में राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक पतन और गैर-सरकारी ताकतों की बढ़ती शक्तियां और प्रभाव भी शामिल है।
इन मापदंडों के आधार पर देखें तो सुखद तथ्य ये कहा जा सकता है कि अगले कुछ वर्षों में पाकिस्तान के ऐसी अराजकता में घिरने की संभावना नहीं है, जिससे वह उबर न सके।
अराजकता में घिरा हुआ देश
कई मायनों में देखें तो पाकिस्तान का पतन अचानक नहीं हुआ है। कई वर्षों पहले ही इसकी शुरू हो चुकी है। बस हाल के वर्षों में इसमें काफी तेजी आई है।
पहली बात तो यह है कि 8 फरवरी को हुए चुनावों में धांधली और इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) व सैन्य नेतृत्व के बीच चल रही लड़ाई के कारण देश का अधिनायकवादी सैन्य-नागरिक सत्ता ढांचा कहीं अधिक बर्बाद हो चुका है। यह संघर्ष तब सार्वजनिक हुआ था, जब पिछले साल इमरान खान को जेल में डाल दिया गया था। इतना ही नहीं, आईएसआई के पूर्व महानिदेशक फैज हमीद, जो कि इमरान खान के करीबी थे, उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। किसी वरिष्ठ सैन्य अधिकारी के साथ ऐसा सलूक ऐसा पहले कभी सुनने को नहीं मिला था।
अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी दावा करते हैं कि इस खींचतान के बावजूद इमरान खान वास्तव में सैन्य प्रतिष्ठान के 'पारंपरिक वैश्विक नजरिए का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्पष्टता से कहें तो उनकी नीतियों में इस्लामीकरण, मुस्लिम असाधारणता और भारत-विरोधी पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का विशेष मिश्रण है जो कि जनरल अयूब खान और जनरल परवेज मुशर्रफ जैसे सैन्य शासकों की पहचान हुआ करती थी। यही कारण है कि इमरान खान इतने लोकप्रिय और सेना के दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी बन चुके हैं।
मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल के अलावा पाकिस्तानी सरकार और उसके सुरक्षा बल अपनी धरती पर सक्रिय पाकिस्तानी तालिबान जैसे आतंकवादी समूहों से प्रभावी ढंग से निपटने में असमर्थ रहे हैं। साल 2023 में देश भर में 789 हमले और आतंकवाद विरोधी अभियान हुए थे, जिसमें लगभग 1,524 जानें गई थीं।
हालांकि अपनी सीमा के अंदर आतंकवाद पर नकेल कसने में इस नाकामी के बावजूद सैन्य प्रतिष्ठान भारत और अफगानिस्तान जैसे देशों में आतंक फैलाने से बाज नहीं आ रहा है।
जैसा कि सुरक्षा विश्लेषक सुशांत सरीन कहते हैं कि पाकिस्तान में सरकार और समाज दोनों में बुनियादी वैचारिक भ्रम है जो आतंकवाद से लड़ाई को कामयाब नहीं होने देता। भारत के खिलाफ जिहादी विचारधारा का गुणगान करने वाले, भारत में सक्रिय आतंकी संगठनों को सपोर्ट करने वालों की सराहना की जाती है, लेकिन पाकिस्तान को निशाना बनाने वाले ऐसे संगठनों के खिलाफ लड़ना संभव नहीं है।
ऐसी भी अटकलें हैं कि बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के हालिया तख्तापलट के पीछे भी पाकिस्तानी खुफिया सेवाओं का हाथ हो सकता है।
इसके अलावा, पूरे पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। उदाहरण के लिए बलूचिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में बड़े पैमाने पर अशांति और पाकिस्तान विरोधी भावनाएं हैं। सिंधियों और पश्तूनों के बीच खासा असंतोष है।
इसी तरह इस्लामी चरमपंथ और हिंदुओं, ईसाइयों व अहमदिया मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव भी बेरोकटोक जारी है। कट्टर इस्लामी नेताओं का सरकारी संस्थानों पर जबरदस्त प्रभाव है। यह हाल ही में कट्टरपंथी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान द्वारा
ईशनिंदा मामले में अहमदिया अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला बदलने पर मजबूर करने से जाहिर है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और कुछ देशों की आर्थिक मदद के बावजूद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जर्जर है। महंगाई, बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर है। आर्थिक विकास दर स्थिर है। पाकिस्तान
का सबसे सफल निर्यात कोई वस्तु या सेवा नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क के माध्यम से फैलाया जाने वाला आतंकवाद है।
अमेरिकी नीति और हालात से निपटने की तैयारी
नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति चाहे कोई भी बने, नई सरकार को पाकिस्तान के घटनाक्रम पर बारीकी से ध्यान देना होगा। संकट की गंभीरता को समझना होगा और उसी के अनुरूप नीतियां बनानी होंगी।
मतलब ये कि अतीत में जो नीतिगत गलतियां हुई हैं, उन्हें आगे जारी नहीं रखा जा सकता। जैसे कि आतंकवाद को विदेश नीति के औजार के रूप में प्रयोग करने वाले सैन्य शासकों को खुश करना बंद करना होगा। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सिविल सोसायटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कट्टर इस्लामपंथियों की हुकूमत जारी है। अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए आईएमएफ जैसे संस्थानों द्वारा दी जा रही ऋण माफी के बजाय असल बुनियादी सुधारों का बंदोबस्त करना होगा।
हालात को देखते हुए बिना गलती के, सख्त नीति अपनाना वक्त की जरूरत है। यह सिर्फ अपने देश में मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए विदेशों में पैसे जमा करने वाले सैन्य व नागरिक नेताओं पर प्रतिबंधों तक सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि तब तक किसी भी तरह की सहायता नहीं दी जानी चाहिए जब तक कि आर्थिक रूप से, सैन्य रूप से और कानूनी व संवैधानिक रूप से हालात में सुधार नहीं किया जाता।
पाकिस्तान के पतन का डर, जिसकी तरफ वह पहले से ही बढ़ रहा है, अब उसके बचकाने नखरों और ब्लैकमेलिंग के झांसे में आने का बहाना नहीं हो सकता।
आखिर में कहें तो पाकिस्तान एक अस्वाभाविक और कृत्रिम ईकाई है। वह एक ऐसे कंप्यूटर सिस्टम की तरह है, जो जिसकी स्थापना ही एक गलती थी और उसकी हालत सुधारने के लिए अब पूरे सिस्टम को रिबूट की जरूरत है।
अमेरिका के नीति निर्माता जितनी जल्दी इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेंगे, दुनिया उतनी ही बेहतर हो सकेगी।
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