सिनेमाई शोरगुल और चकाचौंध के बीच कुछ फ़िल्में ऐसी आती हैं जैसे जीवन चल रहा हो साधारण रूप से। जैसी किसी की सुंदरता को गहने-ज़ेवर, बनाव-सजाव से लादा ना गया हो। जैसे इनकी खामोशी दूर तक नाद करती हुई मन में धंसी रहती है।
ऐसी ही एक फ़िल्म है “8A.M METRO”। फ़िल्म का ट्रेलर देखकर ही मन कर गया था इसे देखने का, लेकिन यह zee के चैनल पर उपलब्ध थी। ऑनलाइन कई बार सर्च किया, पर मिली नहीं। शायद यह सर्च का ही नतीजा था कि यह फ़िल्म youtube के रेक्मनडेस्शन में मुझे बीते दिनों दिखी।
कविता जैसी यह फ़िल्म आज के जीवन के लिए बहुत ज़रूरी है। वैसे तो पारिवारिक रिश्ते ख़ासकर पत्नी-पत्नी के रिश्तों पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं। उनमें बासु भट्टाचर्या के निर्देशन में कुछ ख़ूबसूरत फ़िल्में बनीं। लेकिन यह उन सब फ़िल्मों से अलग है। एक किताब की तरह आपको अपनी बात समझाती जाती है।
फ़िल्म के पात्र दूसरे लोगों की मदद करते हैं जबकि उन्हें ख़ुद मदद की ज़रूरत है। कौन सा इंसान किस पीड़ा से घिरा है, यह कोई कैसे मुखौटे के पीछे से जान सकता है? सामजिक परिवेश ही कुछ ऐसा बन सा गया है कि लगभग सबको जज होने का भय समाया रहता है। कोई क्या कहेगा, इस फेर में ख़ुद से दूर होते लोग मानसिक बीमार होते चले जाते हैं। ऐसे में अचानक कोई मन लायक़ साथी मिल जाए तो वह भी एक समय में ख़ुद के स्वीकारने से ज़्यादा समाज को स्वीकार होगा कि नहीं की बलि चढ़ जाता है।
फ़िल्म में कई ख़ूबसूरत कविताएं हैं। फ़्रेंज काफ़्का की एक कहानी का भी ज़िक्र है, पर मूल बात यह है कि अगर किसी किताब के एक-दो पन्ने ठीक नहीं लगें तो इसका मतलब यह नहीं कि वह पूरी किताब ही ख़राब है। यही बात इंसानों पर भी लागू होती है।
हमारे पास सब कुछ होता है, फिर भी हम बाहर चीजों को ढूंढते रहते हैं। कहते हैं ना कि आसानी से मिलने वाली चीज़ों की हम समय पर कद्र नहीं करते। और फिर उनके ना होने पर पीछे मुड़कर देखने पर समझ आता है कि जीवन इतना भी बुरा नहीं था। बस देखने, महसूस करने का नज़रिया सही नहीं था।
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