22 अप्रैल, 1914 को जन्मे बलदेव राज चोपड़ा यानी बीआर चोपड़ा ने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की थी। शायद यही वजह है कि जब वह एक लेखक, निर्माता और निर्देशक बने तो उनका ध्यान उन सामाजिक मुद्दों की ओर गया जिन्हें उन्होंने अपनी फिल्मों में बेहद सशक्त तरीके से उजागर किया। बीआर की बनाई कई फिल्में आज भी प्रासंगिक हैं। उनमें से 10 को बॉलीवुड इनसाइडर ने सर्वश्रेष्ठ चुना। एक नजर...
एक ही रास्ता (1956)
बीआर चोपड़ा की पहली प्रोडक्शन और उनके नये बैनर के तहत आई थी एक ही रास्ता। यह उस समय विधवाओं के लिहाज से एक ज्वलंत मामला था जब वे अपने निराश्रित बच्चों के पालन-पोषण और उनकी गरिमा को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही थीं। यह फिल्म जुबली हिट रही और इसने सामाजिक बदलाव की राह दिखाई।
नया दौर (1957)
औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न बेरोजगारी और आदमी बनाम मशीन की जद्दोजजहद दर्शाने वाली थी नया दौर। एक सड़क के निर्माण से पहले तांगा और बस की होड़ में आम आदमी के जीवन संघर्ष और अस्तित्व की लड़ाई में एक पूरे गांव को एकजुट करने की तत्काल आवश्यकता को पर्दे पर प्रभावशाली तरीके से लाती है यह फिल्म।
साधना (1958)
साधना 1950 के दशक में एक 'तिरस्कृत' महिला के पुनर्वास को बढ़ावा देने के लिए एक तरह का जुआ था। उस समय भारतीय समाज अपमानजनक रूप से रूढ़िवादी था। लेकिन लीला चिटनिस ने सच जानने के बाद वैजयंतीमाला को स्वीकार कर लिया, जो चंपाबाई की भूमिका में थीं। इस प्रदर्शन के लिए अभिनेत्री और फिल्म के लेखक मखराम शर्मा को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला।
धूल का फूल (1959)
धूल का फूल ने बीआर चोपड़ा के छोटे भाई यश को निर्देशक के रूप में लॉन्च किया। यश ने नया दौर में बीआर की सहायता की थी। यह एक मुस्लिम व्यक्ति अब्दुल रशीद पर केंद्रित है जो अवैध संबंधों से पैदा हुए एक हिंदू लड़के को पालने के लिए सामाजिक दबाव से लड़ता है। फिल्म हिट रही।
धर्मपुत्र (1961)
अपने बड़े भाई के लिए निर्देशक के रूप में यश चोपड़ा की इस दूसरी फिल्म ने अवैधता के विषय को हिंदू कट्टरवाद के दायरे में एक कदम आगे बढ़ाया। दिलीप राय के रूप में अपनी पहली वयस्क भूमिका में शशि कपूर एक युवा मुस्लिम जोड़े की संतान है जो बिना विवाह के पैदा हुआ। उसे स्वतंत्रता के बाद विभाजन की छाया में उसके हिंदू पड़ोसियों द्वारा प्यार से पाला जाता है। मगर शायद दर्शक इतनी 'कड़वी हिट' फिल्म के लिए तैयार नहीं थे। जहां धूल का फूल एक व्यावसायिक हिट थी वहीं धर्मपुत्र एक असफल फिल्म साबित हुई।
कानून (1960)
यह कोर्ट रूम ड्रामा उन मुद्दों के बारे में बात करता है जो शायद ही कभी मुख्यधारा के बॉलीवुड में अपनी जगह बना पाए हों। कालिदास के मामले के माध्यम से, जिसे उस अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है जो उसने नहीं किया था और अंततः आरोपी को मारने के लिए आगे बढ़ता है, यह कानून की खामियों को छूता है। फिल्म बेहद दिलचस्प थी जिसमें राजेंद्र कुमार का अभिनय शानदार था।
गुमराह (1963)
यह फिल्म उस समय वास्तव में बोल्ड थी जिसमें इसकी नायिका माला सिन्हा स्वेच्छा से अपने पूर्व प्रेमी सुनील दत्त के साथ विवाहेतर संबंध में फंस गई थी और यह अवैध संबंध उसे एक ब्लैकमेलर के चंगुल में डाल देता है। उसे हत्या करने के लिए लगभग मजबूर कर देता है। इसकी कहानी कई युवा महिलाओं के लिए आंखें खोलने वाली थी।
आदमी और इंसान (1969)
अपने भाई के लिए यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित एक और प्रेम त्रिकोण न केवल हमारे समाज में नियोक्ता और कर्मचारी के बीच तीव्र विभाजन को रेखांकित करता है बल्कि उस दरार को भी रेखांकित करता है जो शुरू हो गई थी। फिल्म अपने शीर्षक को सार्थक करते हुए ईमानदारी और मानवता की वकालत करती है।
निकाह (1971)
30 जुलाई, 2019 को भारत की संसद ने तीन तलाक की प्रथा को अवैध और असंवैधानिक तथा 1 अगस्त से दंडनीय अधिनियम घोषित कर दिया था। इस ऐतिहासिक फैसले से लगभग 40 साल पहले बीआर चोपड़ा ने शरिया कानून के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठाई थी। निकाह फिल्म अपनी नायिका के माध्यम से एक रूढ़िवादी मुस्लिम लड़की को आवाज देने के मामले में क्रांतिकारी थी। फिल्म की नायिका महिलाओं को उनके पतियों द्वारा स्वामित्व, त्यागने और व्यापार करने के तरीके के खिलाफ विरोध करने की बात कहती है।
बागबां (2003)
2003 की यह फिल्म बीआर चोपड़ा द्वारा सह-लिखित और निर्मित थी। फिल्म उनके बेटे रवि द्वारा निर्देशित थी। यह कहानी उन्हें साठ के दशक में यूरोप की यात्रा के दौरान पता चली। वह जिस होटल में ठहरे थे वह रिटायरमेंट होम के बगल में था। वहां एक वृद्ध जोड़े द्वारा सुनाई गई परित्याग और दुःख की कहानी ने फिल्म के लिए प्रेरित किया। उन्होंने 1973 में लोनावाला में छुट्टियों के दौरान लगातार 14 घंटों में पटकथा लिखी। इसमें अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ने बुजुर्ग माता-पिता की भूमिका निभाई है।
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