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आधुनिक दौर में बच्चों की परवरिश का सुगम रास्ता दिखाती हैं प्राचीन हिंदू प्रथाएं

हिंदू संस्कृति हमें याद दिलाती है कि हम यह और इससे भी अधिक कर सकते हैं। हम याद रख सकते हैं कि बच्चों से जैसा व्यवहार हम चाहते हैं हमें उसका अनुकरण करना चाहिए। उपदेश नहीं देने चाहिए।

सदियों पुरानी हिंदू शिक्षाएं और प्रथाएं अभी भी परवरिश की राह दिखाती हैं। / Demo Pic Uunsplash/charlesdeluvio
  • डॉ. कविता पलोड सेखसरिया

एक मनोवैज्ञानिक के तौर पर 2 साल की बेटी और 4 साल के बेटे की मां होने के नाते मैं स्वाभाविक रूप से यह सोचने में बहुत समय बिताती हूं कि मुझे आशा है कि वे कौन बनेंगे और एक अभिभावक के रूप में मुझे उनकी पूरी क्षमता के मुताबिक हासिल करने में उनकी मदद के लिए क्या करना चाहिए। फिलहाल, आमतौर पर इसका मतलब है कि मैं अपनी दुनिया से बाहर निकलकर उनकी कुछ छोटे-मोटी मदद कर दूं लेकिन उन्हें बिस्तर पर लिटाने और उनकी स्थिति पर विचार करने के लिए समय निकालने के बाद मैं इस सवाल से जूझने के अलावा कुछ नहीं कर सकती।  

मुझे लगता है कि दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों और किशोरों को जिन सबसे बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा वे तीन तरह की हैं। पहली, संसाधनों तक पहले से कहीं अधिक पहुंच के बावजूद एक अभूतपूर्व मानसिक स्वास्थ्य संकट; दूसरी, हमारे समुदाय की अपार सफलता की ऊंची उम्मीदें; और तीसरी, डिजिटल दुनिया की वे चुनौतियां जो उन्हें सुकून से नींद लेने, मेल-जोल और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता से वंचित करने के लिए हैं। शुक्र है, मुझे लगता है कि सदियों पुरानी हिंदू शिक्षाएं और प्रथाएं अभी भी उनकी मदद में सक्षम हैं। 

'द एनक्सियश जेनरेशन: हाओ द ग्रेट रिवायरिंग ऑफ चाइल्डहुड इज कॉजिंग एन एपिडेमिक ऑफ मेंटल इलनेस' के लेखक जोनाथन हैड्ट जेन जेड और जेन अल्फा को प्रभावित करने वाले मानसिक स्वास्थ्य संकट का स्पष्ट निदान और एक सीधा इलाज प्रदान करते हैं। मुझे लगता है कि ये निदान हिंदू अमेरिकी माता-पिताओं को समझने और अमल में लाने के लिए उपयुक्त हैं। 

उनका मानना ​​है कि जैसे-जैसे अमेरिकी माता-पिता अपने बच्चों को प्रारंभिक स्वायत्तता देने से दूर चले गए हैं उन्हें एक ऐसे समाज का भी सामना करना पड़ा है जो तेजी से अलग और एकांत हो गया है। ये दोनों चीजें एक-दूसरे में समा गई हैं। हम अधिक जोखिम लेने के प्रति अधिक इच्छुक हो गए हैं और माता-पिता की अपने बच्चों से कम अपेक्षाओं के परिणामस्वरूप वे कम स्वायत्त हो गए हैं।

हम अपने बच्चों को बाहर अकेले बाइक चलाने नहीं देते क्योंकि हमें इस बात पर पूरा भरोसा नहीं है कि अगर कुछ गलत होगा तो हमारे पड़ोसी हमें बुलाएंगे। हम भी भरोसा कायम करने के लिए अपने पड़ोसियों से कभी नहीं मिलते। हम सब 'सुरक्षा कवच' में अपने घर में ही रहते हैं। हालांकि हैड्ट एक स्वयंभू नास्तिक हैं किंतु वह साझा करते हैं कि धर्म और आध्यात्मिकता का सहारा लेना इस अलगाव और एकांत के नुकसान को दूर करने का एक संभावित तरीका है। 

बेशक, हमारे बड़ी उपलब्धि हासिल करने वाले हिंदू अमेरिकी बच्चों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा कम उम्मीदें हैं जिसके बारे में हैड्ट को चिंता है बल्कि उन बड़ी उम्मीदों और अमेरिकी संस्कृति का दबाव भी है जो हमारे बच्चों को लगातार अपना सबसे कठोर आलोचक बनने के लिए प्रेरित करता है। 

भले ही इन अपेक्षाओं ने हमारे कई बच्चों को बहुत दूर धकेल दिया है लेकिन कम उम्मीदों को दबाने के लिए समाधान वही है: हमारी समेकित जमीन को महसूस करना और हमारे चिंताग्रस्त दिमाग से बाहर निकलने का गुर सीखना। धर्म पर आधारित होकर हम भौतिक दुनिया के उन खिंचावों को दूर कर सकते हैं जो हमारे बच्चों को खुद का आकलन करने के लिए अपने चरित्र के बजाय उपलब्धि का उपयोग करने के लिए मजबूर करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे 'पर्याप्त अच्छे नहीं हैं'।

रही-सही कसर सोशल मीडिया ने निकाल दी है। उनका समय और शक्तियां छीनकर। इसकी इजाजत शायद हमने ही दी है। लेकिन समाधान सरल है, यदि आसान नहीं भी है तो। बच्चों को यथासंभव लंबे समय तक सोशल मीडिया से दूर रखें और उन्हें डिजिटल दुनिया के बजाय वास्तविक दुनिया में स्वायत्तता दें। हिंदू संस्कृति हमें याद दिलाती है कि हम यह और इससे भी अधिक कर सकते हैं। हम याद रख सकते हैं कि बच्चों से जैसा व्यवहार हम चाहते हैं हमें उसका अनुकरण करना चाहिए। उपदेश नहीं देने चाहिए। 

2024 में हिंदू-अमेरिकी माता-पिता के लिए चुनौतियां अलग हैं। हालांकि हिंदू धर्म अपनी प्राचीन लेकिन सनातन प्रकृति में हमें अपने बच्चों का मार्गदर्शन करने के लिए माध्यम देते हैं और आधुनिक मनोवैज्ञानिक विज्ञान भी उन माध्यमों में यकीन करने लगा है क्योंकि यह लंबे समय में प्रमाणित हो चुका है। 

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