अमेरिका की तरह भारत में भी यह चुनावी वर्ष है। लिहाजा राजधानी नई दिल्ली में 1 फरवरी को भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो बजट पेश किया वह काफी हद तक पटकथा के अनुरूप ही था। यह अंतरिम बजट था। इसे वोट-ऑन-अकाउंट भी कहा जाता है। यह बजट आमतौर पर बिना किसी विशेष घोषणा या तामझाम अथवा कार्यक्रमों के होता है जो प्राय: नियमित बजट से जुड़े होते हैं। ऐसा इसलिए कि भारत में आने वाले अप्रैल या मई माह में आम चुनाव होने वाले हैं। अंतरिम बजट इसीलिए पेश किया गया क्योंकि नई सरकार आने पर पूर्ण बजट पेश करेगी।
बहुत कुछ तो स्पष्ट था ही किंतु फिर भी वित्त मंत्री की यह पेशकश आलोचना रहित नहीं थी। वेतनभोगी करदाता कुछ राहत की आस में थे। पर ऐसा नहीं हुआ। विपक्षी राजनीतिक वर्ग ने कभी-कभार हो-हल्ला किया अन्यथा संसद में पूरे सत्र के दौरान ध्यान में बैठे रहने के बावजूद नियमित रूप से काम किया। कुल मिलाकर सीतारमण के हाथ बंधे हुए थे।
अंतरिम बजट पर परंपरा को एक तरफ रख दिया जाए तो वित्त मंत्री की छोटी सी प्रस्तुति में सरकार आश्वस्त दिखी। सत्ता में वापसी को लेकर। इस बार वित्त मंत्री की प्रस्तुति केवल 56 मिनट की थी जबकि 2020 में रिकॉर्ड 2 घंटे 20 मिनट की थी। यही अल्पावधि प्रस्तुति जता रही थी कि मोदी सरकार तीसरी बार फिर से सत्ता में आएगी। तभी तो सीतारमण ने कहा कि हमें उम्मीद है कि हमारी सरकार को जनता एक बार फिर शानदार जनादेश के साथ आशीर्वाद देगी।
ऐसा नहीं है कि वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री उन चुनौतियों से अनभिज्ञ हैं जिनका सामना देश कर रहा है। दरअसल, देश 2047 तक पूर्ण रूप से विकसित राष्ट्र होने की महत्वाकांक्षा पर चल पड़ा है। बेशक, आर्थिक विकास एक झटके में नहीं होता और न पल भर में शुरू होता। इसके लिए दूरदर्शिता और अनुशासन की एक दीर्घकालिक आवश्यकता होती है। मुफ्त की चीजें तो नहीं बांटी जा सकतीं।
निःसंदेह भारत जैसे देश को अपने वंचित वर्ग का ध्यान रखना होगा और इसके साथ सब्सिडी सहित विशेष कार्यक्रमों की जरूरत महसूस होती है। लेकिन यह सब देश की वित्तीय सेहत को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। आर्थिक प्रबंधक जो काम करते हैं उनमें से एक यह सुनिश्चित करना होता है कि खर्च आने वाली आय या प्रबंधनीय अनुपात की कमी के अनुरूप हो। यह एक ऐसी समस्या है जिसका सामना सभी देशों को करना पड़ता है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है।
यह भी सही है कि एक पूर्ण विकसित स्थिति की ओर बढ़ रहा कोई देश वैश्विक आर्थिक वातावरण से पूरी तरह से अछूता नहीं रह सकता है। इसलिए क्योंकि दुनिया में कई संघर्ष और चुनौतियां हैं। दो वर्षों से अधिक समय तक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था कोविड का कहर झेलती रही और आज भी कभी-कभी इसके वेरिएंट होश उड़ा देते हैं। यूक्रेन में युद्ध का कोई अंत नहीं दिख रहा है जिससे खाद्यान्न आपूर्ति को झटका लगा है। और गाजा में चल रही घटनाओं ने लाल सागर में शिपिंग को प्रभावित किया है। ये सभी चीजें भारत के लिए भी मायने रखती हैं।
भारत में सत्तारूढ़ दल और राजनीतिक विपक्ष आम चुनावों के बाद सत्ता में बने रहने या आने के अपने-अपने तरीकों को लेकर आश्वस्त हैं। मतदाताओं के सामने भी यह काम बहुत कठिन नहीं है। उन लोगों की पहचान करनी है जो भारत की प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हैं।
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