भारत में आम चुनाव की तारीखों को लेकर सस्पेंस खत्म हो गया है। भारत के चुनाव आयोग ने 18वें लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है। ये चुनाव पहले की तरह चरणों में होंगे। चुनाव आयोग के कंधों पर इन चुनावों को सफलतापूर्वक अंजाम तक ले जाने की महती जिम्मेदारी है। उसे 98 करोड़ से अधिक मतदाताओं, हजारों मतदान केंद्रों, केंद्रीय सुरक्षा बलों और राज्यों की कानून प्रवर्तन एजेंसियों के साथ तालमेल बनाना है। ये न सिर्फ वोटिंग मशीनों और मतगणना केंद्रों पर तैनात कर्मचारियों की सुरक्षा बल्कि देश के दूरदराज के इलाकों में चुनाव के दौरान लोगों को आपराधिक और आतंकी घटनाओं से बचाने के लिए बेहद जरूरी है।
भारत में लोकतंत्र पिछले सात दशकों से अधिक समय से जीवंत रहा है तो निस्संदेह इसका बड़ा श्रेय उन लोगों के लचीले रुख को जाता है जो सुनिश्चित कर रहे हैं कि आपसी मतभेदों को केवल मतपेटियों और ईवीएम के जरिए ही सुलझाया जाए। नेता लोग जब अपनी लाइन क्रॉस करने की कोशिश करते हैं तो जनता उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देती है। इस परंपरा को भारतीय भारतीय मतदाता लंबे अरसे से संजोते आए हैं। हालांकि वोटों के लिए हथेली गर्म करने का रिवाज आज भी जिंदा है। उम्मीद है कि जल्द ही ये इतिहास की बात हो जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे कि बूथ कैप्चरिंग और मतपेटियों में फर्जी मतदान अब दुर्लभ घटनाएं हो चुकी हैं।
राजनीतिक दलों ने अप्रैल/मई में होने वाले चुनावों के लिए पूरी ऊर्जा और उत्साह के साथ कमर कस ली है। हर किसी को पिछली बार से अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद है। भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को विभिन्न दलों का नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्लुसिव अलायंस यानी I.N.D.I.A. चुनौती देने का प्रयास कर रहा है। इस अलायंस के प्रत्येक दल के पास विविधता वाले इस देश में अपनी अलग ताकत है। दोनों ही पक्ष अपनी अपेक्षित लाइन के साथ मतदाताओं के सामने हैं- मौजूदा सत्तारूढ़ दल अपील कर रहे हैं कि वे पिछले एक दशक में मिले फायदों को आगे ले जाना चाहते हैं। वहीं विपक्ष जोर देकर कह रहा है कि आर्थिक विकास को छोड़ दें तो लोकतंत्र को इस दौरान हुए नुकसान की भरपाई करना जरूरी है।
देश के सामने मौजूदा चुनौतियों को देखने के दो अलग तरीके नहीं हो सकते। यह देखना निश्चित रूप से सकारात्मक है कि आर्थिक विकास के अनुमान लगभग 8 प्रतिशत की दर पर है, हालांकि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों के साथ इसका तालमेल बनाना होगा। भारत एक ऐसा देश है जिसे अल्प विकास और असमान विकास की समस्या को संबोधित करने के लिए कई फासले तय करने बाकी हैं। अमीर और गरीब के बीच स्पष्ट अंतर की बात तो छोड़ ही दीजिए।
दुनिया इस वक्त युद्ध के खतरे का सामना कर रही है। माल की आवाजाही जोखिम भरे रास्तों से होकर हो रही है। ये परिस्थितियां विकास के अनुकूल नहीं हैं। यूक्रेन युद्ध को शुरु हुए तीन साल हो चुके हैं। ऐसा लगता है कि परमाणु हथियारों की धमकी पागलपन की हद तक बढ़ गई है। गाजा में संघर्ष को छह महीने होने के करीब है। इस युद्ध ने लाल सागर और उससे आगे तक मालवाहक जहाजों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। ये परिस्थितियां भारत जैसे देश के लिए अच्छी नहीं कही जा सकतीं, जो विकसित देश बनने का पुरजोर प्रयास कर रहा है।
भारत के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 1991 में जब आर्थिक सुधार और उदारीकरण की शुरुआत की थी तो बड़ा सवाल यही था कि क्या सरकारें इस पर आगे बढ़ेंगी या अपने कदम पीछे खींच लेंगी। तीस से अधिक वर्ष बीतने के बाद केंद्र में सत्ताधारी विभिन्न राजनीतिक दलों ने दिखा दिया है कि अगर देश तरक्की की सीढ़ी चढ़ रहा है तो पीछे हटने का सवाल ही नहीं है। भारतीय मतदाता अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीतिक दलों को स्थिरता लाने के लिए ठोस काम करना होगा। केवल शाब्दिक बयानबाजी से काम नहीं चलेगा, जिसका उद्देश्य एकजुट करने के बजाय बांटना ज्यादा है। 2024 का चुनाव इन्हीं सब को लेकर होना है।
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